नई दिल्ली/रायपुर। कुणाल सिंह ठाकुर। ‘तीन बार सीएम होने के बाद मेरे लिए अब पद बहुत मायने नहीं रखता, हम मिल कर चुनाव लड़ेंगे। भरोसा कीजिए राजस्थान के सीएम अशोक गहलोत ने ये बात प्रेस से कही। पार्टी के लिए त्याग की बात सुन आला कमान के कलेजे को ठंडक पहुंची। कम से कम अब राहुल गांधी अमेरिका का दौरा सुकून से कर सकेंगे। सुनते हैं कि राहुल ने दोनों नेताओं से बड़ी भावुक अपील की। कांग्रेस के भविष्य को लेकर दलील दी। हर बार ही होता है, जब राहुल करते हैं कोई बड़ा काम, तो पार्टी के भीतर से ही हेडलाइन बन जाती है।

बड़ी हेडलाइन तो हमेशा कांग्रेस की कलह होती है। उनकी खबर कहीं हाशिए पर जगह पाती है। एकता कपूर के सास भी कभी बहू थी के बाद कांग्रेसी नेताओं के बीच की खींचतान ज्वाइंट फैमिली की उठापटक का मज़ा देती रही है। लेकिन बता रहे हैं कि राजस्थान में अब घणी शांति होने जा रही है, ये बात कुछ हजम नहीं हो पा रही है। कांग्रेस की बड़ी टेंशन ये है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अब राजस्थान से चुनावी दौरा शुरू कर रहे हैं। पहले दौरे में अजमेर और पुष्कर पहुंच रहे हैं। इस दौरान आपसी अनबन में दोनों कांग्रेसी नेता म्यान पर हाथ ना रख दें। मोदीजी से गहलोत और अमित शाह से मिल कर सचिन पायलट कहीं नया बखेड़ा ना शुरू कर दें। ऐसे में पायलट को पुचकारने और गहलोत को गरमी दिखाने में ही भलाई समझी गई है। इसीलिए फटाफट आधा-अधूरा फैसले की गाजर दोनों के सामने लटकाई गई है।

कहते हैं कि कलह के बगैर कांग्रेस कैसी। इसीलिए कलह करने वाले भी कांग्रेसी ही कहलाने लगे हैं। सियासी धमाचौकडी के बहाने ही सही, कांग्रेसी सुर्खियां सजाने लगे हैं। मोदीजी मानते हैं कि गलत वजहों से ही सही, कांग्रेस को सुर्खियों में जगह देने की जरूरत नहीं। देश के सामने और भी बड़े-बड़े मुद्दे पड़े हैं। विकास की राह में जो रोड़े की तरह अड़े हैं। कांग्रेस और बीजेपी यही तो फर्क है। बीजेपी में राजदंड से ही सही, सब अनुशासन की डोर में बंधे रहते हैं, लेकिन कांग्रेसी तो इस धींगामुश्ती को आंतरिक लोकतंत्र कहते हैं। इसी लोकतंत्र की रक्षा करने में कांग्रेस मिट गई। कई राज्य इकाईयों में नेता तो सैकड़ों हैं लेकिन कार्यकर्ताओं की तादाद दहाई भी नहीं रही।

बहरहाल, समझने वाली बात ये है कि राजस्थान में क्या वाकई सब ठीक हो गया है। कहा जा रहा है कि आला कमान ने दोनों के हाथ बांध दिए हैं। समझौता तो तीन बार करा कर थक चुका है नेतृत्व। सब जानना ये चाहते हैं कि सुलह का फार्मूला क्या तय हुआ। दिलचस्प बात ये है कि पार्टी महासचिव केसी वेणुगोपाल ने कहा कि दोनों ने फैसला आलाकमान पर छोड़ दिया। लेकिन जो तस्वीर सामने आई है उसमें सुलह के ऐलान के वक्त तक एक दूसरे को देखना तक पसंद नहीं कर रहे थे। मुस्कुराहट भी कम, खीज से भरे हुए थे।

सवाल ये है कि आलाकमान के कारकूनों को बैरंग भेज देने वाले अशोक गहलोत क्या अब चुप्पी साध लेंगे। क्या गारंटी है कि उनके खेमें के नेता सचिन पायलट के खिलाफ बयानबाज़ी नहीं करेंगे, या फिर पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया के कार्यकाल के भ्रष्टाचार की मांग को पायलट फिलहाल छोड़ देंगे। दोनों नेताओं के बीच समझौते में हुई जीत किसकी है, सभी को इसी में दिलचस्पी है। जानकारों का मानना है कि दोनों तरफ से खेल बीजेपी के चाणक्य ही खेल रहे हैं। सचिन के जरिए कांग्रेसमुक्त अभियान जारी है तो गहलोत की तारीफ वसुंधरा पर भारी है।

पार्टी के प्रति को निष्ठा को लेकर वसुंधरा राजे घेरी जा रही हैं। इसीलिए लोकसभा चुनाव में चार सीटों पर पार्टी को जिताने के लिए झारखंड भेजी जा रही है। चित भी मेरी पट भी मेरी, और सत्ता बीजेपी की। रंग-रंगीले राजस्थान पर चढ़ाई की इस बार खासी तैयारी है। विधानसभा के साथ-साथ लोकसभा की 25 सीटों के लिए रणनीति बनाई जा रही है। बहरहाल सब इस बात को लेकर बहुत फिक्रमंद हैं कि आलाकमान के धमकाने पर मान कैसे गए ये रणबांकुरे। जो दुश्मन से लड़ने से पहले एक दूसरे का हिसाब करने पर आमादा रहे हैं। दूसरों को भले ही बर्दाश्त करना पड़े लेकिन एक दूसरे की बेइज्जती से बाज नहीं आते।

कभी निकम्मा, तो कभी गद्दार एक दूसरे को बताने पर बात-बात पर आमादा हो जाते हैं। हाल के दिनों में गहलोत ने वसुंधरा राजे को इशारों ही इशारों में लोकतंत्र का पहरुआ बता दिया था। कहा था कि ऑपरेशन लोटस के वक्त उन्होंने ही सरकार बचाने में साथ दिया था। बातों ही बातों में सचिन के पायलट बन कर बीजेपी के साथ उड़ान भरने का इशारा किया था। उसके बाद से तो पायलट की रगें भी फड़कने लगीं थीं। काल करे सो आजकल, कहने लगी थीं। अपनी ही सरकार के खिलाफ पैदल यात्रा निकालनी पड़ी थी। एक दिन का मौन उपवास रखा था, कर्नाटक के नतीजों तक का इंतज़ार नहीं किया था, और नेताओं को आला कमान अल्टीमेटम देता है, यहां पायलट ने आला कमान को इसी महीने के आखीर तक फैसला करने का अल्टीमेटम दे दिया था। सचिन की राहुल-प्रियंका से नजदीकियों ने पार्टी का असली आलाकमान कौन ये जता दिया था।

वैसे गहलोत भी समझ गए हैं कि अब उनका जादू बहुत चलेगा नहीं, सरकार का साल भर भी नहीं बाकी है, आला कमान को भी बहुत गरज नहीं। चुनाव हार गए तो वसुंधरा भी मोदी-शाह के कोप से अब बचाने की हालत में भी नहीं हैं। घपलों-घोटालों की फाइल उनकी भी तैयार है। वैसे भी राजस्थान में जनता रोटी पलटने में यकीन रखती है। पांच साल में सत्ता बदलती रहती है। पहले पायलट भी दांव पर खुद को लगा कर देख चुके हैं। बीजेपी कांग्रेस से आए नेताओं को वीआरएस ही देती है, समझ चुके हैं। अब अमित शाह को भी उनकी ज़रूरत बहुत रही नहीं है। क्योंकि धर्मयुद्ध के जरिए ही विजय वरण का चक्रव्यूह रचा गया है।

दरअसल जीतने से ज्यादा कांग्रेसी ही अपनी पार्टी को हरवाने में भरोसा रखते हैं। भारत जोड़ो यात्रा के दौरान भी इनमें समझौता कराया गया था। राहुल की पदयात्रा पर इन्हें तरस ना आया था। 2022 में भी केसी वेणुगोपाल ने एकता की तस्वीरें छपवाने के लिए दोनों का हाथ उठवाया था। इस बार भी दिखाई जा रही तस्वीर बासी ही रहेगी। अपने-अपने वफादारों के जरिए ये लड़ाई जारी कुर्सी मिलने तक जारी रहेगी। आला कमान ने कलह की वजह से हर बार मुंहकी खाई है। जनता जिता भी दे तो कलह की वजह से सत्ता गंवाई है। राजस्थान में जीत के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद उतर रहे हैं प्रचार के मैदान में। अजमेर से हो रही है शुरुआत। हर जिले में मोदीजी करेंगे जनता से सीधा संवाद.. उनके सामने गहलोत पायलट कहां टिक पाएंगे इस बार। मोदीजी हिंदुत्व के प्रतीकों से विजयश्री का करेंगे वरण। तो अमित शाह की शत्रुपक्ष की कमजोरियों पर रिसर्च जारी है। ऐसे में कर्नाटक की तरह नहीं आसान, राजस्थान में दुरभिसंधियों का संग्राम।

By Kunaal Singh Thakur

KUNAL SINGH THAKUR HEAD (प्रधान संपादक)

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