रायपुर। कुणाल सिंह ठाकुर। छत्तीसगढ़ के घने जंगलों में रहने वाले आदिवासियों के अदानी समूह की नई कोयला खदान के ख़िलाफ़ संघर्ष का एक साल पूरा हो गया है। हाल के महीनों में इन प्रदर्शनकारियों को कई हाई प्रोफ़ाइल राजनेताओं और कार्यकर्ताओं का समर्थन मिला है। लेकिन दुनिया के सबसे बड़े ओद्योगिक समूहों में से एक के ख़िलाफ़ इस वंचित वर्ग की लड़ाई में आदिवासियों को जीत अगर मिली भी तो वो बहुत मुश्किल होगी।

छत्तीसगढ़ का हरिहर गांव दो परस्पर विरोधी संसारों के शिखर पर खड़ा है। इस चट्टान पर खड़े होकर बाईं तरफ़ देखें तो ज़हां तक नज़र जाती है एक दशक पुरानी पारसा ईस्ट केटा बासान (पीईकेबी) खुली खदान का असीमित भूरापन दिखता हैं। अदानी समूह इस खदान को संचालित करता है। बिखरे हुए कुछ घरों के इस गांव के दूसरी तरफ़ हसदेव जंगल फैला है, जिसके नीचे अभी भी अरबों टन उच्च गुणवत्ता का कोयला मौजूद है।

कहा जाता है कि ये जंगल मध्य भारत में सबसे बड़ा घना जंगल है जो 170,000 हेक्टेयर या 170 वर्ग किलोमीटर में फैला है। अकसर इसे छत्तीसगढ़ के फेफड़े कहकर भी संबोधित किया जाता है। यहां लेमरू हाथी रिज़र्व भी प्रस्तावित है। यहां रहने वाले आदिवासी पिछले एक दशक से नई कोयला खदान का विरोध करते रहे हैं। लेकिन स्थानीय लोगों के कड़े विरोध और सरकार के ही जंगल विभाग की कोयला खदान से यहां के स्थानीय जीवों और परिस्थितिकी पर नकारात्मक असर होने की चेतावनी के बावजूद पिछले साल यहां कोयला खदान शुरू करने को अंतिम अनुमति दे दी गई थी। तब से ही 2 मार्च के बाद से यहां निरंतर धरना चल रहा है।

दिलचस्प बात ये है कि जो कांग्रेस पार्टी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी पर अदानी समूह का पक्ष लेने के लिए हमलावर होती रही है, छत्तीसगढ़ में उसी कांग्रेस पार्टी की सरकार ने इस प्रोजेक्ट को आगे बढ़ने की अनुमति दी है।

बढ़ रहा है विरोध :
हरिहरपुर की तरफ जाने वाली सड़क पर डाली गई घासफूस की एक झोपड़ी अदानी समूह की कोयला खदान के ख़िलाफ़ विरोध का केंद्र बन गई है। हर दिन यहां आसपास के तीन गांवों फ़तेहपुर, घटबर्रा और सालही के लोग यहां आते हैं और शांतिपूर्ण धरना देते हैं। हफ्ते में एक दिन सैकड़ों लोग यहां इकट्ठा होते हैं और ‘अदानी वापस जाओ’ का नारा लगाते हैं।

कांग्रेस राज में अडानी को कोयला खदान का ठेका, उठे सवाल :
हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति के सदस्य मुनेश्वर सिंह पोर्ते कहते हैं, “प्रशासन ने ग्राम परिषद की बैठक में फ़र्ज़ी दस्तावेज़ दिखाकर अवैध तरीक़े से हमारी ज़मीनों पर क़ब्ज़ा कर लिया। हमने कभी भी भूमि अधिग्रहण पर सहमति नहीं दी थी।”

आपको बता दें, अदानी समूह ने ये कहते हुए इन आरोपों को खारिज कर दिया है कि वह हमेशा से ही ‘अपने ऑपरेशन भारत के क़ानूनों के दायरे में’ चलाते रहे हैं। अदानी समूह का कहना है कि राज्य विद्युत उत्पादन निगम (आरआरवीयूएनएल), जो कि मौजूदा खदान और प्रस्तावित खदान को संचालित करती है और जिसमें अदानी समूह की 74 प्रतिशत हिस्सेदारी है, वो भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास को ‘सख़्त क़ानूनी दायरे में’ देखती है और कंपनी ने ग्रामवासियों का सहमति लेने की प्रक्रिया को नियमों का पालन करते हुए पूरा किया है।

लेकिन जिन कई गांवों में हमने यात्रा की, वहां प्रदर्शनकारी आदिवासियों का कहना था कि ग्राम सभा या ग्राम परिषद की राय को बैठक के दौरान या तो सुना ही नहीं गया या खारिज कर दिया गया। हसदेव अरण्य जैसे दूरस्थ इलाक़ों में भूमि अधिग्रहण के लिए ग्राम सभा की मंज़ूरी लेना अनिवार्य होता है। कम से कम तीन गांव के लोगों ने ज़िला प्रशासन को शिकायत देकर नियमों के उल्लंघनों की जांच की मांग की है। सुप्रीम कोर्ट में इस मुद्दे को लेकर चल रहे एक मामले का भी हिस्सा भी हैं।

सुप्रीम कोर्ट में भूमि अधिग्रहण और पर्यावरण से जुड़ी अनुमति को चुनौती देते हुए याचिका दायर की गई है। एक प्रदर्शनकारी रामलाल कर्यम कहते हैं, “हमारे देवता भी इन्हीं जंगलों में रहते हैं, हम मूर्तियों की पूजा नहीं करते हैं। खनन से हमारी प्राचीन संस्कृति और जीवन मूल्यों का विनाश हो जाएगा।” रामलाल और उनके साथ कई प्रदर्शनकारियों ने साल 2021 में खनन रोकने की मांग करते हुए राजधानी रायपुर तक 300 किलोमीटर लंबी पैदल यात्रा की थी।

बढ़ रहा मतभेद :
इस तरह के बयान को कैमरे पर रिकॉर्ड करना आसान नहीं है। प्रदर्शन अब एक निर्णायक मोड़ पर पहुंच गए हैं और जंगल में निगरानी बढ़ गई है। हम दो दिन इन जंगलों में रहे और इस दौरान मोटरसाइकिलों और कारों से लोग हमारा पीछा करते रहे। जब हम एक गांव घटबर्रा में दाख़िल होने की कोशिश कर रहे थे तो कुछ ने हमारे वाहन में तोड़फोड़ करने की धमकी भी दी। हम गांव के प्रधान से बात करने के लिए यहां आए थे। ये आदिवासी समुदाय से ही आने वाले युवा हैं जो खनन विकास के जोशीले समर्थक हैं, हालांकि अभी ये अल्पसंख्यक हैं, लेकिन इकनी आवाज़ तेज़ होती जा रही है।

फ़तेहपुर गांव के रहने वाले केशव सिंह पोर्ते कहते हैं, “विकास के लिए कुछ विनाश तो होगा ही।” जब हमारी गाड़ी घाटबर्रा की तरफ़ जा रही थी तो वो दो अन्य लोगों के साथ हमारा पीछा कर रहे थे। वो कहते हैं, “हमारी उम्मीदें जंगल में मिलने वाली चीज़ों में खाना खोजने से कहीं ज़्यादा बड़ी हैं।” वो ये भी कहते हैं कि प्रदर्शनों को लेकर जो नज़रिया है उसमें भी संतुलन बनाए जाने की ज़रूरत है।

अदानी समूह का पक्ष :
अदानी समूह ने कहा है कि उन्होंने स्थानीय युवाओं के विकास के लिए कई क़दम उठाए हैं जिनमें 800 बच्चों का एक स्कूल स्थापित करना, क़रीब 4000 युवाओं को व्यवसायिक प्रशिक्षण देना और स्थानीय स्तर पर मोबाइल क्लीनिक संचालित करना शामिल है। अदानी समूह का कहना है कि पीईकेबी, जो साल 2013 से आरआरवीयूएनएल की ईंधन ज़रूरतों को पूरा करने के लिए यहां से कोयले का उत्पादन कर रही है, उसने अकेले ही यहां सीधे और परोक्ष रूप से 15 हज़ार नौकरियां इस ज़िले में पैदा की हैं। अदानी समूह ने कहा है, “ये स्थानीय लोगों के मज़बूत समर्थन के बिना संभव नहीं हो पाता।”

हालांकि कई ग्रामीणों और कार्यकर्ताओं का कहना है कि स्थानीय लोगों के साथ सकारात्मक संपर्क रखना अदानी समूह की लोगों को प्रदर्शन ना करने के लिए मनाने की कोशिश का हिस्सा हैं। वो दावा करते हैं कि अदानी समूह ने हर गांव से ऐसे युवाओं को अपने साथ रखा है जो प्रदर्शनकारियों और कार्यकर्ताओं की हर गतिविधि पर नज़र रखते हैं ताकि ये प्रदर्शन नियंत्रण के बाहर ना हो जाएं।

बदल रही है स्थिति?
पिछले साल, कुछ समय के लिए ऐसा लगा था कि आदिवासियों की आवाज़ सुनी जा रही है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने खुलकर अपनी पार्टी के राज्य में खनन को अनुमति देने के फ़ैसले से असहमति जताई थी। पिछले महीने ही, किसान नेताओं में से एक राकेश टिकैत ने ऐलान किया था कि अगर जंगल का एक भी पेड़ काटा गया तो प्रदर्शन तेज़ हो जाएंगे। कांग्रेस ने केंद्र सरकार को खनन के लिए दी गई अनुमति को वापस लेने के लिए पत्र तक लिखा है। हालांकि इस क्षेत्र के प्रमुख समाजिक कार्यकर्ता आलोक शुक्ला कहते हैं कि ये राज्य सरकार की ‘देर करने की रणनीति’ है। उन्होंने कहा कि राज्य को मंज़ूरी वापस लेने का संवैधनीक अधिकार है और उसे केंद्रीय सरकार की अनुमति लेने की कोई आवश्यकता नहीं है।

आलोक शुक्ला कहते हैं कि छतीसगढ़ में राजनीतिक इच्छाशक्ति का भी अभाव है क्योंकि यहां पर कांग्रेस शासित राज्य राजस्थान का भी दबाब है क्योंकि राजस्थान की बिजली उत्पादन कंपनी को भी परसा से ही कोयला मिलेगा। छत्तीसगढ़ में चुनाव भी आने ही वाले हैं, जिससे राजनीतिक माहौल और भी जटिल हो गया है और एक लंबी, झुलसाने वाली गर्मी, जिसमें बिजली कटौती का डर भी होगा, नेताओं को फिर से राज्य की ऊर्जा सुरक्षा के बारे में सोचने पर मजबूर कर सकती है।

सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रोजेक्ट पर ये कहते हुए रोक लगाने से इनकार कर दिया है कि भूमि अधिग्रहण को चुनौती देने वाली याचिकाओं को किसी भी तरह से खनन के ख़िलाफ़ प्रतिबंध के रूप में नहीं देखा जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि आदिवासियों के अधिकारों को अलग से निर्धारित किया जाएगा, लेकिन विकास की क़ीमत पर नहीं। लेकिन प्रदर्शनकारियों को विश्वास है कि जीत उनकी ही होगी। प्रदर्शनकारी समूह के प्रमुख सदस्य उमेश्वर सिंह आर्मो कहते हैं, “हमें अदालत में पूरा विश्वास है। ये सिर्फ़ हसदेव की लड़ाई नहीं है। हम इस देश के लिए और दुनिया के लिए लड़ रहे हैं जो जलवायु परिवर्तन के ख़तरों को सामना कर रही है और जहां पर्यावरण का क्षरण हो रहा है।”

By Kunaal Singh Thakur

KUNAL SINGH THAKUR HEAD (प्रधान संपादक)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !! You are not allowed to copy this page, Try anywhere else.