रायपुर। कुणाल सिंह ठाकुर। प्रदेश में आपराधिक घटनाओं में भारी उछाल देखने के बाद और साल भर बचे विधानसभा चुनवा के मद्देनजर चिन्हांकित शहरों में पुलिस पेट्रोलिंग तेज कर दी गई है। इसी कड़ी में राजधानी में भी क्राइम के रोकथाम के लिए पेट्रोलिंग तेज की गई है। प्रशासनिक वर्दीधारियों द्वारा बिना वर्दी के गुंडों को जगह-जगह से उठाया जा रहा है और उन्हें जेल आमद कर शांति के मिसाल के रूप में अपने आप को लोगों के बीच प्रत्यक्ष किया जा रहा है। लेकिन थाने के अंदर और बाहर में वर्दी वालों गुंडों का क्या? इनके द्वारा उपयोग की जा रही भाषा (गाली-गलौच) का क्या? थाने से डाइरेक्ट केस खत्म कर रोकड़े ऐंठने वाले वार्दी वालो का क्या? मीडिया को अपनी पैर की जूती समझने वाले और उनका अनादर करने वाले स्टार धारी अधिकारियों का क्या?
इसका जवाब किसी के पास नहीं हैं! ऐसा इसलिए क्योंकि कोई आवाज़ नहीं उठाना चाहता या जिनमे आवाज़ उठाने की शक्ति है उन्हें पहले ही दबा दिया जाता है। पुलिस थानों में रोज़ाना विभिन्न प्रकार के केस आते हैं, लेकिन जरूरी तो नहीं की हर आरोपी अपराधी ही हो। यह जानकर भी की मामला माननीय न्यायालय जाकर साबित होगा, वर्दीधारी थाने में ही आरोपी को अपराधी घोषित कर देतें हैं। आरोपी को मानसिक और आर्थिक रूप से प्रताड़ित करने वाले वर्दी वाले गुंडों से भला कौन बचाए। प्रताड़ना का खौफ इस कदर है कि आरोपी को अपना पक्ष तक रखने का मौका नहीं दिया जाता और थाने में ही उसे अपराधी घोषित कर अपराधियों सा सलूक किया जाता है। जबकि आरोपी का अपराध जबतक साबित नहीं होता वह माननीय न्यायलय की नज़रों में भी साफ होता है, फिर भी वर्दी वालों का ऐसा रवैय्या क्या सहीं हैं? अगर वर्दी वालों की नज़र में आरोपी ही अपराधी होता है और वे आरोपी से अपनी भाषा (गाली-गलौच) में ही बात करना पसंद करेंगे तो फिर उन्हें वर्दी वाला गुंडा बोलना ही सही है। सच लिखना अपराध है तो अपराध ही सही लेकिन यह कहानी किसी एक थाने की नहीं है।
(संपादक -कुणाल सिंह ठाकुर)
