नई दिल्ली/रायपुर। कुणाल सिंह ठाकुर। हर एक्शन के बाद चंद्रशेखर आजाद के बचने की वजह थी कि पुलिस के पास उनकी कोई फोटो नहीं थी। वह किसी साथी की गिरफ्तारी के बाद भी तेजी से अपना ठिकाना बदलते थे। लम्बी फ़रारी के बीच वह हुलिया और पेशे बदलते रहे। पुलिस और ख़ुफ़िया एजेंसियों को छकाते रहे। आजादी की लड़ाई से क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद का जुड़ाव बापू के रास्ते हुआ। 23 जुलाई 1906 को जन्मे आजाद तब सिर्फ़ 15 साल के किशोर थे। 1921 में असहयोग आन्दोलन के दौरान संस्कृत विद्यालय के सामने धरना-प्रदर्शन किया। पकड़े गए। अपना नाम आजाद बताया। पिता का स्वाधीन। घर का पता जेलखाना लिखाया। अदालत को सीधी चुनौती थी कि उनके जज़्बे की पैमाइश उम्र से न की जाए। जेल से डर नही। माफ़ी का सवाल नही। 15 बेंत की सख्त सजा कुबूल की। आने वाले दिनों में आजाद कितनी बड़ी चुनौती बनेंगे, इसके संकेत उन्होंने तभी दे दिए।

खतरों से खेलना आजाद के स्वभाव का हिस्सा था। इसी आन्दोलन के दौरान सरकार विरोधी नोटिस थाने के सामने चिपकाने की चुनौती थी। सम्पूर्णानंद ने सामने मौजूद कार्यकर्ताओं की ओर देखा। आजाद आगे आए। नोटिस के पिछले हिस्से पर ढंग से लेई लगाई। सामने के दो कोनो पर लेई लगाकर पीठ पर टिकाया। निर्भीक होकर थाने के सामने पिलर पर पीठ सटा के उसे चिपका दिया। यह काम उन्होंने वहां खड़े सिपाही से बात करते हुए किया। सिपाही की उस नोटिस पर निगाह पड़ने तक वह थाने से दूर हो चुके थे।

असहयोग आंदोलन की वापसी और क्रांतिकारी दल से जुड़ाव :
महात्मा गांधी ने 12 फरवरी 1922 को असहयोग आंदोलन वापस ले लिया। इस लड़ाई में शामिल लोगों के लिए ये फैसला पचाना आसान नही था। नौजवान खासतौर पर मायूस हुए। वे कुछ कर गुजरना चाहते थे। रास्ते की तलाश थी। आजाद ने 1922 में काशी विद्यापीठ में प्रवेश लिया। संगठन की तैयारी के सिलसिले में बंगाल के क्रांतिकारियों की वहां आमद शुरु हो चुकी थी। 1923 के मध्य में विद्यापीठ के छात्र प्रणवेश चटर्जी और मन्मथनाथ गुप्त से उनकी भेंट हुई। बेंत की सजा के बाद आजाद की ओर लोग आकर्षित होने लगे थे। प्रणवेश ने उनसे मित्रता बढ़ाई। क्रांतिकारियों की योजना की जानकारी दी और उन्हें हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन से जोड़ दिया। यही प्रणवेश काकोरी कांड में गिरफ्तारी बाद पुलिस की यातनाओं के सामने कमजोर पड़ गए थे।

17 साल की उम्र में पहला क्रांतिकारी एक्शन :
17 साल की उम्र में आजाद ने क्रांतिकारी ‘एक्शन’,में सक्रिय भागीदारी शुरु कर दी। शाहजहांपुर से ट्रेन पर 22 क्रांतिकारी सवार हुए। साथ में काफी हथियार थे। अलग-अलग डिब्बों में सवार साथी पुलिस को लेकर सशंकित थे। गंतव्य पर सबसे आसानी से आजाद बाहर हुए। उन्होंने अकेले यात्रा कर रही एक वृद्धा की उंगली थामी और गेट पर टिकट थमा कर बाहर दूर निकल गए। क्रांतिकारी इतिहास में काकोरी कांड का खासा महत्व है। हथियारों और बुनियादी जरूरतों के लिए क्रांतिकारियों को हमेशा धन की किल्लत रहती थी।

घर-परिवार छोड़ आजादी की लड़ाई के लिए निकले फ़रारी की जिन्दगी गुजारते ये जाबांज जिस सशस्त्र क्रांति के सपने वे बुन रहे थे, वह बिना हथियारों के मुमकिन नहीं थी। रेल से जा रहा सरकारी खजाना लूटना उसी अभियान का हिस्सा था। इस साहसिक अभियान में जो दस साथी शामिल थे, उनमें आजाद ने बड़ी भूमिका निभाई थी। उस दौर में फिरंगी सरकार को यह सीधी और खुली चुनौती थी। बेशक क्रांतिकारी सरकारी खजाने को लूटने में सफल हुए। पर सरकारी दमनचक्र ने संगठन को भारी नुकसान पहुंचाया।

पुलिस ने चालीस युवकों को उठाया और सत्रह पर संगीन दफ़ाएं ठोंकी। पंडित राम प्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक उल्ला, रोशन सिंह और राजेंद्र लाहिड़ी को फांसी पर लटका दिया। शेष को काला पानी या अन्य लम्बी सजाएं मिलीं। दो क्रांतिकारी जिन तक पुलिस नही पहुंच सकी, वे थे कुंदन लाल गुप्त और चन्द्रशेखर आजाद।

ठिठुरती रातें पर पूरे बिस्तर भी नहीं :
आगरा को मुख्यालय बनाकर संगठन को नए सिरे से सक्रिय किया गया। हींग मंडी के दो मकान ठिकाने थे। बेहद आर्थिक तंगी थी। साथियों के लिए भोजन भी मुश्किल से जुटता था। ठिठुरती रातों के लिए पर्याप्त बिस्तर भी नही थे। लेकिन फ़िरंगियों को सबक सिखाने के संकल्प के आगे ये संकट बौने थे। साइमन कमीशन पर बम फेंकने की योजना बनी। पहले नागपुर के लिए तैयारी थी। पैसे की कमी आड़े आ गई। दिल्ली में बम फेंकते समय जयदेव कपूर का हाथ राजगुरु ने पकड़ लिया। जिस मोटर पर बम फेंक रहे थे, उसमे साइमन थे ही नही।

17 दिसम्बर 1928 को पुलिस अधिकारी जे.पी. साण्डर्स की हत्या की गई। हालांकि तलाश स्कॉट की थी। साइमन कमीशन के विरोध में लाला लाजपत राय की निर्मम पिटाई और मौत का यह बदला था। इस एक्शन के लिए चार लोग चुने गए थे। जयगोपाल को पहचान करानी थी। आजाद, भगत सिंह, राजगुरु पर मुख्य जिम्मेदारी थी। साण्डर्स की हत्या ने देश भर में हलचल मचा दी। क्रन्तिकारियों के हिम्मत-हौसले की हर तरफ़ तारीफ़ थी। इसने फ़िरंगियों की मुख़ालफ़त करने वालों में नया जोश भरा।

सेंट्रल असेंबली एक्शन में भगत सिंह की भागीदारी नहीं चाहते थे आजाद :
चन्द्रशेखर आजाद को काकोरी कांड ने बड़ी सीख दी थी। संगठन नष्ट हो गया था। आजाद ने साण्डर्स एक्शन में पुलिस की पकड़ से बचने का पुख़्ता इंतजाम किया। उसमें वे पूरी तरह कामयाब रहे। इस कांड के दस महीने बाद तक पुलिस, एक्शन में शामिल किसी क्रांतिकारी तक नही पहुंच सकी। पर उस घटना से दहके शोले अब ठंडे पड़ रहे थे। क्रांतिकारी किसी बड़े एक्शन की तैयारी में थे, जो देश भर में हलचल मचा दे। सेण्ट्रल असेम्बली को इस काम के लिए चुना गया। क्रांतिकारी अपनी रणनीति बदल रहे थे। मारो-भागो की जगह बिना किसी को नुकसान पहुंचाए देश का ध्यान खींचो। फिर समर्पण करके किसी भी कुर्बानी के लिए स्वंय को प्रस्तुत करो।

8 अप्रैल 1929 का दिन चुना गया। असेम्बली में फेंके जाने वाले बम का मकसद किसी को नुकसान पहुंचाना नही था। ये विस्फोट सिर्फ ध्यान खींचने के लिए था। बटुकेश्वर दत्त और काला पानी की सजा काट कर लौटे राम शरण दास को इसके लिए चुना गया। सुखदेव ने भगत सिंह की हिम्मत पर सवाल खड़े किए। भगत सिंह एक्शन में शामिल किए जाने के लिए अड़ गए। आजाद तैयार नही थे। भगत सिंह के समर्पण के बाद के नतीजों का उन्हें अनुमान था। वह जानते थे, कि साण्डर्स कांड भगत सिंह को जेल से जीवित नही निकलने देगा।

काकोरी कांड के बाद फिर से खड़े किए गए संगठन को लेकर आजाद की आशंकाएं थीं। भगत सिंह उनके लिए सहयोगी भर नही थे। दोनो ने मिलकर आजादी को लेकर बड़े सपने देखे थे। वे उन्हें सच में बदलना चाहते थे। आजाद दल के कमांडर थे। पर बेहद लोकतांत्रिक। अपनी राय मजबूती के साथ रखते। फिर बहुमत की इच्छा मान लेते। असेम्बली बम कांड में भी यही हुआ। अनिच्छुक आजाद ने भगत सिंह को हिस्सेदारी और फिर आत्मसमर्पण की इजाजत दे दी।

बिछड़ते साथी, कमजोर होता संगठन :
भगत सिंह की गिरफ्तारी के बाद भी आजाद पुलिस की पकड़-पहुंच से दूर थे। 23 दिसम्बर 1929 को आजाद और साथियों ने वाइसरॉय लार्ड इरविन की ट्रेन में विस्फोट कर उन्हें मारने की असफल कोशिश की। इरविन बाल-बाल बच गए। उनकी बोगी सकुशल पार हो गई। विस्फोट ने ट्रेन की डाइनिंग कार को बुरी तरह क्षतिग्रस्त कर दिया। भगत सिंह और दत्त को जेल से छुड़ाने की कोशिशें जारी थीं। उसी सिलसिले में बम परीक्षण के दौरान 28 मई 1930 को भगवती चरण वोहरा की शहादत हो गई। आजाद के लिए यह बहुत बड़ा झटका था। वोहरा (बाबू भाई) की बुद्धिमत्ता और बहादुरी पर आजाद को बहुत भरोसा था।

इस विस्फोट में सुखदेव राज घायल हो गए। दो साथियों के कम होने के बाद भी भगत सिंह-दत्त को छुड़ाने की असफल कोशिश की गई। अगला प्रयत्न हो पाता, इसके पहले ही वोहरा बम विस्फोट कांड की पुलिस तफ़्तीश तेज हो गई। आजाद और उनके शेष साथियों को लाहौर छोड़ना पड़ा। बिखरते साथियों के बीच आजाद अकेले से पड़ने लगे थे। गिरफ्तारियों का सिलसिला तेज था। पुलिस यंत्रणा या प्रलोभनों में साथी टूट रहे थे। फिर भी आजाद में हिम्मत में कमी नही थी, थकने का सवाल नही था।

और आजाद की वह फोटो :
हर एक्शन के बाद आजाद के बचने की वजह थी कि पुलिस के पास उनकी कोई फोटो नहीं थी। लुंगी में मूंछ ऐंठती उनकी इकलौती फोटो क्रांतिकारियों के सहयोगी मास्टर रुद्र नारायण ने झांसी में खींची थी। काकोरी कांड के बाद आजाद ने अपने सहयोगी विश्वनाथ वैशम्पायन को झांसी भेजा था कि फ़िल्म नष्ट कर दें। मास्टर ने कहा, सोच लो फिर आजाद की फोटो के लिए तरस जाओगे। वैशम्पायन ने अपने कमांडर से पहली और आखिरी बार गहरे अपराधबोध के बीच झूठ बोला। आजाद किसी एक्शन बाद ही नही, किसी साथी की गिरफ्तारी के बाद भी तेजी से अपना ठिकाना बदलते थे। लम्बी फ़रारी के बीच वह हुलिया और पेशे बदलते रहे। पुलिस और ख़ुफ़िया एजेंसियों को छकाते रहे। पर आखिर में भितरघात के शिकार हुए।

वीरभद्र ने की मुखबिरी :
27 फरवरी 1931 को सुबह लगभग दस बजे आजाद और सुखदेव राज को इलाहाबाद में अल्फ्रेड पार्क में घुसते समय पुलिया पर एक आदमी दातुन करता दिखा। उसने गौर से आजाद को देखा। सुखदेवराज ने उसे घूर कर देखा। कुछ शक हुआ। सुखदेवराज फिर से पलटे, तब तक उसने मुंंह घुमा लिया था। सुखदेव वापस आकर आजाद के साथ पेड़ के नीचे बैठ गए। आजाद ने सुखदेव से पूछा, कभी वर्मा गए हो? क्या हमारे कुछ साथी वहां सुरक्षित जा सकेंगे? जिस समय यह बात चल रही थी, उसी समय थार्न हिल रोड पर म्योर के सामने से एक व्यक्ति जाता दिखा। आजाद ने रोककर कहा, वीरभद्र जा रहा है। शायद उसने हमें नही देखा। सुखदेव ने उसका नाम सुना था, देखा कभी नही था। यह नाम भी उसने तब सुना था, जब मुखबिरी के आरोप में संगठन ने वीरभद्र की हत्या का फैसला किया। यह योजना असफल हो गई और इस बीच आजाद और साथी कानपुर से इलाहाबाद आ गए।

जीते जी पुलिस न लगा पाई हाथ :
इस बातचीत के बीच ही सामने सड़क पर एक कार रुकी। एक अंग्रेज और दो हिंदुस्तानी सादे कपड़ों में बाहर आए। गोरे ने पिस्तौल तानते हुए अंग्रेजी में सवाल किया, तुम लोग कौन हो? जबाब में आजाद और सुखदेव ने अपनी पिस्तौलें निकालीं। तुरंत ही गोली चलाई। पर अंग्रेज की पिस्तौल से गोली पहले चल चुकी थी। अंग्रेज की गोली आजाद की जांघ में लगी। आजाद की गोली अंग्रेज के कन्धे में। दोनों ओर से ताबड़तोड़ चल रही गोलियों के बीच अंग्रेज ने मौलश्री के पेड़ की आड़ ली। उसके दो साथी नाले में जा छिपे। आजाद और सुखदेव ने जामुन के पेड़ की आड़ ली। कुछ क्षणों के लिए गोलियां चलनी बंद हो गईं।

आजाद ने सुखदेव से कहा कि मेरी जांघ में गोली लगी है, तुम भागो। सुखदेव समर हाउस की तरफ भागे। कुछ गोलियां उन पर चलीं, पर वे उनसे दूर थीं। इलाहाबाद से छपने वाले “लीडर” के 1 मार्च के अंक में छपी खबर के मुताबिक सी.आई.डी. के स्पेशल सुपरिटेंडेंट जे.आर.एच.नॉट बाबर और डिप्टी सुपरिटेंडेंट विशेश्वर सिंह की अगुवाई में आजाद की घेरे बन्दी की गई। बाबर के कंधे पर गोली लगी। फिर वह अपनी पिस्तौल नहीं चला सके। विशेश्वर सिंह चेहरे पर गोली लगने के बाद लहूलुहान सड़क की ओर भागते देखे गए। इस बीच वहां और फोर्स पहुंच गई। आजाद की जांघ पर पहले ही गोली लग गई थी। वहां से वह भागने की स्थिति में नही थे। पर आखिर तक जूझते हुए उन्होंने शहादत दी। आजाद का संकल्प था, आजाद हूं-आजाद रहूंगा। जीते जी पुलिस उन पर हाथ नही डाल पाई।

हुज्जत के बाद दाह संस्कार की इजाजत :
पुलिस-प्रशासन ने आजाद के पार्थिव शरीर को लेकर काफी गोपनीयता बरती। राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन खबर पाते ही पहुंचे। दर्शन की इच्छा व्यक्त की। उन्हें टाला जाता रहा। सुबह बनारस से आजाद के रिश्तेदार शिव विनायक मिश्र पहुंचे। काफी हुज्जत के बाद उन्हें दाह संस्कार की इजाजत मिली। शव कहां ले जाया गया, इसकी सही जानकारी नही दी गई। रसूलाबाद जब वे पहुंचे तब तक शव काफी जल चुका था। इस बीच कमला नेहरु और टंडन भी वहां पहुंच गए। आगे के संस्कार शिवविनायक मिश्र ने पूरे किए। यह वो मिश्र थे, जिन्होंने बेंत की सजा के बाद खींची गई किशोर आजाद की एक तस्वीर संजो रखी थी।

धरती से अम्बर तक आजाद :
आजाद की शहादत से समूचे देश में गम और गुस्से की लहर दौड़ गई। जगह-जगह पर हड़तालों-प्रदर्शनों और सभाओं में उनके साहस-शौर्य-बलिदान का स्मरण किया गया। घरों में चूल्हे ठंडे रहे। बूढ़े-बच्चे-जवान सबने उपवास किया। सूरज उस दिन जैसे जल्दी डूब गया। मांओं ने बेटा खोया। बेटियों ने भाई। युवाओं के गालों पर ढलकते आंसू, चेहरे का खिंचाव, कसी मुठ्ठियां और कंठ से फूटे आकाश भेदते नारे आजाद के रास्ते चलने का नाद कर रहे थे। आजाद अब नही थे, पर हर ओर आजाद थे, धरती से अम्बर तक।

By Kunaal Singh Thakur

KUNAL SINGH THAKUR HEAD (प्रधान संपादक)

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